आज हमारा गणतंत्र दिवस है. इसके लिए सबको बधाईयाँ. खुशकिस्मत हैं हम कि हमने एक आज़ाद और गणतंत्र भारत में जन्म लिया. हमारे सारे स्वतन्त्रता सेनानी ने इस दिन के लिए अपने प्राण को कुर्बान कर दिया था. पर ये आजादी और ये खुशी हमे ऐसे नही मिली. संघर्ष के पल में कईयों का खून मिला. और तो और हमारा अखंड भारत टुकड़ों में बंटा. भारत माता का दायाँ हाथ पकिस्तान में कट जाता है तो भारत माता का आँचल बांग्लादेश में बंट जाता है. और इसमें झेली मासूम जनता के खून से ये संविधान लिखा जाता है. मैं नही कहता कि हमारा संविधान अच्छा नही है. हमारा सविधान दुनिया का सबसे अच्छा सविधान है और मुझे इस पर गर्व है क्यूंकि एक तो ये हमारे महापुरषों की मेहनत का निचोड़ है और इसकी हर एक स्याही में अखंड भारत के सपूतों का खून शामिल है. वैसे इमानदारी से बताऊँ तो मुझे नही पता कि हमारे लिखे संविधान में कितने अनुच्छेद और कितनी धारायें हैं. पर मुझे अपने संविधान पे पूरा भरोसा है. पर यहाँ आज मैं कुछ बातें कहना चहता हूँ.
काश धरम के नाम पे वो सीमा रेखा न होता. तो आज हम सुंदर से लाहौर और वहां की खूबसूरत वादियों का खुली सांस में मजे लिए होते. काश वो लडाई न होता तो आज हम भारत माता के लहेराते आंचल के समुंदर के निकट मजे ले रहे होते. जिहाद के नाम पे अब बस खून खराबा होता है. हर धरम का एक ही मकसद है तो ये लड़ाई अभी तक क्यूँ जारी है? कुछ होता है तो हम एक दूसरे पे आरोप लगाते रहते हैं. तुम कश्मीर मांगते हो! जानते नही की ये हमारी धरती का मुकुट है. अपनी माँ की कोख से अलग हुए तो अपनी माँ की रक्षा नही; उसी की शान को मिटाना चाहते हो! क्यूँ न हम फिर से दोस्ती का हाथ बढ़ाएं और एक हो जाएँ. धरम की किताब में कोई बंटवारा नही तो ये धरती पे लाइन खींच के क्यूँ बंटवारा? आओ इस रेखा को मिटा दे और फिर से प्यार की अलख जगा दें. देश को चलने वालों से हमारी यही गुजारिश है की नफरत के उन फाटक को तोड़ दो और हमे एक दूसरे से जोड़ दो. फिर हम तो पकिस्तान साइकिल से जाते न वीसा का झंझट होता न किसी का डर होता. चलो बात हुई ये हमारे इतिहास की दशा, जिसपे अब परिहास होता है.
पर अब ये एक और बात कहना चहता हूँ की क्या देश का संविधान सब पे सही से लागू हो पा रहा है. नही!! इसी का तो रोना है. पहले हमे इस देश के संविधान में क्या लिखा है? ये ही नही पता है और तो और लागू करने की बात तो दूर की है. मगर अब जैसे की हमारे देश के संविधान में सबको पढ़ने का अधिकार है. ये ही नही पूरा हो पर रहा है. मैं अगर अपने विश्वविद्यालय की बात करूं तो यहाँ ही कई ऐसे बच्चे मिल जाते हैं जो केवल कैंटीन और मेस में काम करके अपना और अपने परिवार का गुजरा बसर कर रहे हैं. इस ठण्ड में भी आधी आस्तीन का कपडा पहने काम करते हैं. और हम जैसे लोग बस ये लाइन लिख कर अपनी व्यथा ज़ाहिर कर देते और करते कुछ नही. लंका की सड़कों पे एक दिन मैंने गैस वाले गुब्बारे बेचते हुए बच्चों को देखा. वो बच्चा एक मोटरसाइकिल वाले को गुब्बारा बेंच रहा था. लेकिन अचानक उसके हाथ से दो गुब्बारे आसमान में उड़ गये. ये देख की मुझे लगा कि " एक ऐसा ख्वाब लिए मैं इन रंगीन गुब्बारों को बेचता हूँ; एक दिन जब पैसे हो जायेंगे तो मैं भी ऊँचे अपने सपनों का आसमान छु पाउँगा."
ओह मैं तो अपने ही भावों में लाइन से हट गया था. तो मैं ये बोल रहा था कि क्या ये संविधान सब पे लागू हो रहा है? जवाब है नही. इसी का नुकसान हम सब झेल रहे हैं. आम आदमी यदि कुछ परेशान है तो उसे ये पता नही आगे क्या क्या करे? और गलतीवश वो गलत कर बैठता है और कानून की नज़र में गुनाहगार हो जाता है. चलो मैं फिर से अपने विश्वविद्यालय आता हूँ. यहाँ हमारे बिल्डिंगों की नीव उन गरीब और अनपढ़ मजदूरों के पसीनों से खड़ी हुई है जो अपने बच्चों को केवल पाल सकते हैं. उन्हें स्कूल भेजने के लिए उनके पास इतना पैसा नही होता है. और हम लोग उन्ही के बनाये गये क्लास में पढाई करते हैं. "वो पत्थर तोडती एक बुढ़िया, वो बोझा ढोती नवयावना, वो नयी दुल्हन का अपने कोमल हांथो से सीधे बोझा ढोना. वो झुकी कमर लिए हुए बुड्ढे का मसाला मिलाना तो वो नये दुल्हे का प्लास्टर करना." ये हमारी नीव बनाते हैं और हम हैं जो इनको भूल जाते हैं.
मैं क्या करूं इन लोगों के लिए सिवाए अपना लेख लिखने के बजाय. "एक दिन मैं काबिल हो जाऊंगा और अपनी किस्मत बदल के मैं इस देश का भविष्य बनाऊंगा, तो हाथ बढ़ाओ हाथ मिलाने के लिए, प्यार बढ़ाएं और सबको जताएं कि ये देश हमारा प्यारा है इस मिट्टी की सोंधी महक में हम पले हैं और इसकी रक्षा हम ही करंगे. जय हिंद जय भारत."
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